दीपावली

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पर्व और त्योहार किसी भी जाति और राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति के प्रतीक होते हैं। ये त्योहार राष्ट्र में, लोगों के जीवन में स्फूर्ति प्रदान करते हैं। ये पर्व और त्योहार भी जाति के गौरव के प्रतीक होते हैं। भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी और राजस्थान से नेफा की ऊँचाइयों तक सैकड़ों

त्योहार मनाए जाते हैं। उत्तर भारत में दीपावली, वैशाखी, होली तथा जन्माष्टमी आदि त्योहार

मनाए जाते हैं, तो दक्षिण में पोंगल का प्रसिद्ध त्योहार मनाया जाता है। यदि पूर्व में नवरात्रि और

दुर्गापूजा की जाती है तो पश्चिम में राग-रागिनियों द्वारा तुलजा-भवानी की पूजा होती है। उत्तर भारत के प्रत्येक भारतीय के लिए दीपों का त्योहार दीपावली सबसे अधिक लोकप्रिय त्योहार है। यह बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।

ऐसा माना जाता है कि इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात् सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे थे। श्रीराम के लौटने की खुशी में

अयोध्यावासियों ने दीपक जलाए थे। उसी 1. परंपरा के अनुसार आज भी लोग इस त्योहार को मनाते हैं। दीपावली को आर्य समाज, जैन और सिक्ख लोग भी मनाते हैं इस दिन आर्यसमाज

के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने महासमाधि ली थी। इस दिन जैन धर्म के तीर्थकर महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त

किया था सिक्खों के छठे गुरु ने इसी दिन बंदीगृह से मुक्ति प्राप्त की थी। इस वर्ष भी, इस पर्व का आरंभ हमेशा की तरह घरों की सफाई और सफेदी से हुआ। इस

सफाई अभियान में मैंने भी योगदान दिया। कई दिन पूर्व सफाई इत्यादि समाप्त हो चुकी थी और आ पहुँचा वह दिन जिसकी बड़ी प्रतीक्षा थी और जगमगा उठा नगर-नगर,

डगर-डगर। दीपावली के टिमटिमाते दीपकों से महँगाई के दिनों में भी हिंदू व सारा देश कितनी श्रद्धा और प्रेम से अपनी सांस्कृतिक संपदा का स्वागत करते हैं, यह देखते ही बनता है। न पटाखों की कमी, न मिठाइयों की दुकानों की कमी और न कमी हर्ष और उल्लास की। कम-से-कम उस दिन तो ऐसा

लगा कि घर-घर में लक्ष्मी का पदार्पण हो चुका है। मैंने भी लक्ष्मी-पूजन में भाग लिया और सारी रात घर में उजाला रखा, ताकि कहीं अँधेरे की वजह से लक्ष्मी लौट न जाए सभी

लोगों की तरह मैं भी सजधजकर अपने मित्रों के साथ बाजार में घूमने गया और मिठाई, खिलौने फुलझड़ियाँ और आतिशबाजी का सामान आदि खरीदा। कुछ लोग इस दिन जुआ भी खेलते हैं। मैं यह नहीं मानता कि जुआ खेलना इस त्योहार के साथ परंपरागत रूप से जुड़ा हुआ है। मैं तो यह जानता हूँ कि इस दुर्व्यसन से इस पर्व की पवित्रता नष्ट हो जाती है।

भारतीय संस्कृति के महान प्रतीक इस त्योहार को विधिपूर्वक ही मनाया जाना चाहिए।वृक्षारोपण का महत्त्व

वनों के संरक्षण के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि लोग वनों की उपयोगिता को गंभीरता से समझें।

जब हम वन का नाम लेते हैं तब हमारी आँखों के सामने तरह-तरह के हरे-भरे चित्र उभरने लगते हैं। इनमें झाड़ियाँ, घास, लताएँ वृक्ष आदि विशेष रूप से शामिल होते हैं। वे एक-दूसरे के सहारे जीते हैं और फैलते-फूलते हैं। मात्र यह सोचना कि वन केवल लकड़ी की खानें हैं, गलत है। वन केवल लकड़ी की खानें नहीं हैं, हानिकारक गैस 'कार्बन डाइ-ऑक्साइड' की बढ़ती हुई मात्रा को कम करने में वन बड़े सहायक होते हैं। वन प्राणरक्षक वायु ऑक्सीजन की आवश्यकता को

पूरा करते हैं, इसलिए वनों का संरक्षण जरूरी है। सच तो यह है कि कल तक जहाँ वन थे, आज वहाँ कुछ भी नहीं है। वनों को जंगल की आग, जानवरों एवं लकड़ी के तस्करों से बचाना होगा। इससे

वनों को कई किस्में अपने आप उग आएँगी। वनों का विस्तार करने में पक्षियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। पक्षियों को अपनी ओर खींचनेवाले पेड़ों के आस-पास उनके द्वारा लाए हुए बीजों के कारण कई प्रकार के पेड़-पौधे उग आते हैं।

यद्यपि पेड़ों को पानी की जरूरत कम-से-कम होती है. तथापि नए लगाए गए पौधों के लिए कुछ समय तक जल की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है। यह व्यवस्था पोखर, तालाब और पहाड़ी ढालों पर कतार में गड्ढे बनाकर हो सकती है। इसे वृक्षारोपण कार्यक्रम का एक जरूरी हिस्सा समझना चाहिए।

वनों की विविधता को बनाए रखने के लिए भाँति-भांति के पेड़-पौधे, झाड़ियाँ और लताएँ पुनः रोपनी चाहिए। आज जिस तरह से वनों की कटाई की जा रही है, वह चिंता का विषय है। वनों से पर्यावरण स्वच्छ बना रहता है।

भारत को सन् १९४७ में स्वतंत्रता मिली। उसके बाद सन् १९५२ में सरकार ने वनों की रक्षा के लिए एक नीति बनाई थी। उस नीति को 'राष्ट्रीय वन-नीति' का नाम दिया गया। इस नीति में व्यवस्थाएँ तैयार की गई। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के ३३ प्रतिशत भाग पर वनों का होना आवश्यक माना गया इसके अंतर्गत पहाड़ी क्षेत्रों में ६० प्रतिशत भूमि पर वनों को बचाए रखने का निश्चय किया गया तथा मैदानी क्षेत्रों में २० प्रतिशत भूमि पर।

आज स्थिति यह है कि २२.६३ प्रतिशत भूभाग पर ही बन हैं कई राज्यों में तो वनों की स्थिति बहुत खराब है। हाँ, कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में ही वनों का अच्छा-खासा फैलाव है, जैसे-हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय-त्रिपुरा

आदि। वन-विभाग के अनुसार, वर्ष १९५१ से १९७२ के बीच ३४ लाख हेक्टेयर क्षेत्र में वन काट डाले गए। इससे पता चलता है कि प्रत्येक वर्ष १.५ लाख हेक्टेयर वनों की कटाई हुई। वनों की कटाई के कारण जाने-अनजाने कई तरह के नुकसान होते हैं। वनों के सफाए से भारी मात्रा में मिट्टी का

कटाव हो रहा है। भारत में लगभग १५ करोड़ हेक्टेयर भूमि कटाव के कारण नष्ट हो रही है। बुरी तरह से मिट्टी के कटाव के कारण नदियों की तली, तालाब तथा बाँधों के जलाशयों की हालत खराब हो रही है। यही कारण है कि हर साल बाढ़ से धन-धन की भारी बरबादी होती है।

पेड़ों की कटाई के कारण राजस्थान, गुजरात तथा हरियाणा में रेगिस्तान का

विस्तार हो रहा है। पश्चिमी राजस्थान का ७.३५ प्रतिशत हिस्सा रेगिस्तानी बन चुका है। इन क्षेत्रों में वन कटाई के कारण भूमिगत जल का स्तर बहुत नीचे चला गया है। इस

कारण अब न सिर्फ सिंचाई बल्कि पीने के पानी का भी संकट पैदा हो गया है। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन होता है और चट्टानों के खिसकने से उपजाऊ मृदा बहकर दूर चली जाती है।

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